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ज्योतिरादित्य सिंधियाः पिता के उलट एक साहसिक नेता


                                 डॉ. अजय खेमरिया
व्यापक प्रभाव के बावजूद जो राजनीतिक हिम्मत माधवराव सिंधिया नहीं दिखा पाए, उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया ने दिखा दिया। कांग्रेस में रहते जिन गुटीय परिस्थितियों से ज्योतिरादित्य दो-चार हो रहे थे, कमोबेश उन्हीं हालातों से उनके पिता भी गुजरे थे। यह अलग बात है कि माधवराव सिंधिया कांग्रेस में धोखा खाने के बावजूद डटे रहे लेकिन स्टेनफोर्ड से प्रबन्धन की तालीम लेकर आये ज्योतिरादित्य सिंधिया राजनीति शास्त्र पर अपने प्रबन्ध शास्त्र की प्रमेय अपनाने से नहीं चूके।
कहा जाता है कि माधवराव सिंधिया सियासत की निर्मम चालबाजी में माहिर नहीं थे इसीलिए मप्र की राजनीति में वह ज्योतिरादित्य की तरह अपरिहार्य नहीं हुए। लेकिन उनका निजी कद इतना विस्तृत और समावेशी था कि वह स्वतः कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति की अपरिहार्यता बन गए थे। माधवराव सिंधिया और ज्योतिरादित्य में बुनियादी फर्क तालीम और पीढ़ीगत बदलाव का भी है। योग्यता के मामले में ज्योतिरादित्य अपने पिता से कम नहीं हैं। साथ ही वह सियासत के निष्ठुर प्रहारों को अपने पिता की तरह झेलने या उनसे किनारा करने की जगह जूझना पसन्द करते हैं। 2018 में मप्र की सीएम कुर्सी पर उन्होंने पूरी ताकत से अपना दावा दिल्ली दरबार में ठोका। न केवल 10 जनपथ की चारदीवारी बल्कि मप्र में अपने सभी समर्थकों के बीच यह संदेश भी स्थापित किया कि हम अपना दावा छोड़कर त्याग कर रहे हैं और इसका सन्तुलन कमलनाथ और 10 जनपथ को बनाकर रखना होगा।
याद कीजिये 1993 का घटनाक्रम। अविभाजित मप्र में कांग्रेस सरकार बनाने जा रही थी। माधवराव सिंधिया ने घोषणा कर दी थी कि वह दिग्विजय सिंह का समर्थन इसलिए नहीं करेंगे क्योंकि वह विधायक नहीं हैं। उस समय अमर सिंह, सिंधिया के ओएसडी हुआ करते थे उनके हवाले से वीर संघवी ने 'ए लाइफ ऑफ माधवराव सिंधिया' पुस्तक में खुलासा किया है कि अर्जुन सिंह और माधवराव सिंधिया के बीच सिंधिया को सीएम बनाने का समझौता हो चुका था। जिस दिन भोपाल में नेता चुनने के लिए विधायक दल की बैठक हो रही थी दिल्ली में एक विशेष प्लेन तैयार करके रखा गया था। यह लगभग तय लग रहा था कि सिंधिया मप्र के सीएम होने जा रहे हैं। लेकिन अमर सिंह ने माधवराव को भोपाल नहीं जाने दिया क्योंकि उन्हें भरोसा था कि वहाँ जरूर कुछ गड़बड़ हो सकती है। बैठक में कमलनाथ और अर्जुन सिंह ने दिग्विजय सिंह के नाम पर मुहर लगवा दी। माधवराव सिंधिया इस घटनाक्रम को जीवनपर्यंत नहीं भूल पाए। माखनलाल चतुर्वेदी विवि के कुलपति दीपक तिवारी ने अपनी पुस्तक 'राजनीतिनामा' में लिखा है कि माधवराव सिंधिया कहा करते थे- 'दो लोग मेरी जिंदगी में ऐसे हैं जिनकी विनम्रता मेरी जान ले लेती है। एक दिग्विजय सिंह और दूसरी राजमाता।" असल में माधवराव सिंधिया दुश्मनी भुलाने में भरोसा रखते थे और सियासी गिले-शिकवे को साथ नहीं रखते थे। 1989 में भी वह मोतीलाल बोरा की जगह सीएम बनने से चूक गए।
ज्योतिरादित्य सिंधिया इस तरह की सियासी दरियादिली में ज्यादा भरोसा नहीं करते हैं। वह खुलकर सियासत करते हैं। जब मप्र के मुख्यमंत्री के उनके दावे को खारिज कर दिया गया तो वे अपने पिता की तरह चुप नहीं बैठे बल्कि मप्र में अपनी भूमिका और भागीदारी के लिये तार्किक दबाव बनाने में लगे रहे। पिछले सवा साल से वह लगातार सक्रिय रहे। कमलनाथ सरकार की नीतियों पर प्रहार करते रहे। लोकसभा चुनाव में अपनी अकल्पनीय पराजय को उन्होंने हल्के से नहीं लिया। वह जनता से जुड़ने के लिए ज्यादा जवाबदेही से काम करने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन यह भी तथ्य था कि गवर्नेंस के मोर्चे पर जनता में बदलाव का कोई अहसास नहीं हो पा रहा था। पीसीसी चीफ और राज्यसभा सीट को लेकर उनके मामले में मुख्यमंत्री और 10 जनपथ का ठंडा रवैया भी उन्हें कांग्रेस के साथ अपने भविष्य पर पुनर्विचार के लिए विवश कर रहा था।
ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने पिता के संकोची और समावेशी स्वभाव के उलट कांग्रेस को सबक सिखाने का साहस दिखा दिया। वह एक मंजे हुए 'प्रोफेशनल निगोशिएटर' भी हैं। दूसरे अन्य नेताओं की तरह वह हड़बड़ी में बीजेपी में शामिल नहीं हुए। मौजूदा राजनीति की दो सबसे ताकतवर शख्सियत नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के साथ उन्होंने अपनी नई भूमिका को निर्धारित किया। तीन दिन तक वह राष्ट्रीय मीडिया की मुख्य सुर्खी बने रहे। जाहिर है ज्योतिरादित्य सिंधिया बिल्कुल खुली आंख से सियासत करना जानते हैं। उन्होंने जिस तरह अपने समर्थक विधायकों को अंत तक साथ जोड़े रखा है वह कांग्रेस में चमत्कार से कम नहीं है। 15 साल बाद आई सत्ता से छह कैबिनेट मंत्री और 22 विधायक एक झटके में सबकुछ छोड़कर सिंधिया के साथ खड़े हो गए। यह सामान्य घटनाक्रम नहीं है। ऐसा तमिलनाडु की राजनीति में जरूर देखने को मिलता है लेकिन उत्तर भारत में यह आपवादिक ही है। जाहिर है सिंधिया अपने समर्थक नेताओं पर अकाट्य पकड़ रखते हैं। नई भूमिका में सिंधिया न केवल अपने भविष्य के लिए सुरक्षित नजर आ रहे हैं बल्कि वे बीजेपी में केंद्रीय स्तर पर आर्थिक और वाणिज्य जानकारों की कमी को भी पूरा कर सकते हैं। यह भी तथ्य है कि बीजेपी का केंद्रीय विकल्प फिलहाल नजर नहीं आता है और मप्र में उनके नेतृत्व की संभावनाएँ सीमित हो गई हैं। ऐसे में बीजेपी की केंद्रीय राजनीति में उनका समेकन ही सबसे बेहतरीन और सामयिक रास्ता था। वैसे भी उनके पॉलिटिकल डीएनए में बीजेपी मौजूद था।
प्रबन्धन शास्त्र और राजनीति शास्त्र की तालीम में बड़ा बुनियादी अंतर होता है। इसे समझने के लिए हमें यह पता होना चाहिये कि माधवराव सिंधिया राजनीति शास्त्र और ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रबन्ध शास्त्र में मास्टर डिग्रीधारी हैं। कमलनाथ सरकार के पतन की पटकथा में सिंधिया की भूमिका उसी सियासी निर्ममता का निर्मम जवाब है जो माधवराव सिंधिया के साथ 1989 और 1993 में भोगनी पड़ी थी।

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