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एक युग का अंत

 


बबीता कोमल जैन, नलबाडी   


इस धरती पर सदियों में एक बार कोई एक ऐसी आत्मा जन्म लेती है जो स्वयं एक युग के बराबर होती है। ये आत्माएँ समाज सुधारक, राजनीतिज्ञ, नायक, संगीतज्ञ, गायक, लेखक, वैज्ञानिक, चिकित्सक, अभियंता, व्यापारी, उद्योगपति आदि आदि के रूप में हो सकती है। 


इनमें से कोई भी एक आत्मा जब महाप्रयाण की तरफ प्रस्थान करती है तो जगत में एक खालीपन छोड़कर जाती है। ये सभी आत्माएँ हमें इस धरती पर वर्तमान समय के साथ चलना सिखाती है, प्रकृति के गर्भ में छिपे अनन्त रहस्यों में से कुछेक रहस्यों को निकालकर हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं। यकीनन यह सब संसार में भोग-विलास से जीने के लिए यह अति आवश्यक है। इनके एहसानों से हम कभी उऋण नहीं हो सकते हैं। 


इसी कड़ी में अनायास कुछ ऐसी आत्माएँ इस धरा पर आती है जो कदाचित् विज्ञान के चमत्कार, संगीत के वाद्य यंत्र, गणित के हिसाब-किताब में महारत या अन्य किसी कला का प्रदर्शन तो नहीं करती मगर फिर भी संतुलित जीवन जीना सिखा देती है। ये आत्माएँ हमें सिखाती है कि नित-प्रति बदलती दुनिया एवं दुनिया के लोगों के विचारों के अंधे सागर में खुद के निर्विकल्प रहित विचारों को किनारे पर कैसे रखा जाए? आज के अवसाद भरे दौर में इन आत्माओं से बड़ा मनोचिकित्सक कोई नहीं हो सकता। 


ये वे आत्माएँ होती है जो जल से भिन्न कमल होती है, जो सही मायने में शेक्सपीयर द्वारा कही गई प्रसिद्ध पंक्ति, “यह दुनिया एक रंगमंच है और हम सभी इसके कलाकार है।” को सार्थक करती है। इन आत्माओं से यदि कोई अपने वर्तमान शरीर को छोड़कर देह परिवर्तन के पथ पर बढ़ जाए तो सम्पूर्ण विश्व खाली हुआ सा प्रतीत होता है। 


इनमें से ही एक अति विशिष्ट आत्मा आचार्य गुरुवर श्री 108 विद्यासागर जी महाराज ने निर्वाण की तरफ प्रस्थान कर लिया। सन् 1946 में शरद पूर्णिमा के दिन यह नन्ही ज्योति कर्नाटक के सदलगा में इस धरा पर आई थीं और आज 18 फरवरी 2024 को प्रातः 2 बजकर 35 मिनट पर अध्यात्म प्रेमियों का सूरज बनकर डोगरगढ़ (छत्तीसगढ़) में सदैव के लिए लुप्त हो गईं।


इस तरह की ज्योति जो अपने जीवन काल में ज्योति से सूरज बनने तक का सफ़र तय करती हैं वे कभी अस्त नहीं होतीं, वे मात्र लुप्त होती हैं। आँखों से दिखाई न देने का अभिप्राय कभी यह नहीं होता कि वह मौजूद नहीं है। अपने जीवन काल में इनके द्वारा लिखे गए साहित्य और आम जनता के बीच रखे गए इनके अपने विचारों रुपी रोशनी की चमक इतनी अधिक होती है कि यह ज्योति कभी अंधेरे में डूब ही नहीं सकतीं। इनके पदचिन्हों पर चलकर जो भी मनुष्य अपने आत्म कल्याण एवं समाज कल्याण के पथ का अनुसरण करता है, यह ज्योति उनमें ही प्रज्जवलित हो जाती है। 


कहा जाता है कि मनुष्य स्वभाव से स्वार्थी होता है। जब बात अपनी आए तो वह किसी और की परवाह नहीं करता। आदर्शों की दुनिया में मानव के इस व्यवहार को सही नहीं माना जाता मगर दुनिया में बहुत कम आत्माएँ ऐसी होती है जो मानव को स्वार्थी बनना सिखाती है मगर फिर भी पूज्नीय बन जाती है। कदाचित् दोनों कथन एक-दूसरे के विरोधी लगे मगर यह अक्षरशः सत्य है। 


2600 वर्ष पहले भगवान महावीर ने जिओ और जीने को का महान वाक्य विश्व को समर्पित किया था। यह वाक्य ही हमें स्वार्थी होना सिखाता है। हमें सिखाता है कि हम सबसे पहले अपने कल्याण की चिंता करे। सबसे पहले हम क्रोध, मान, माया, लोभ आदि से ऊपर उठकर अपनी स्वयं की आत्मा को कष्ट न पहुँचाएँ। ऐसा कोई कार्य न करे जिससे स्वयं की आत्मा ही मलिन हो जाए। 


कदाचित् इसलिए ही पाप और पुण्य की सबसे खूबसूरत परिभाषाएँ ये ही है कि जो आत्मा को मलिन करे वह पाप और जो आत्मा को आनंद पहुँचाए वह पुण्य। गुरुवर विद्यासागर जी ने अपने पूरे जीवन काल में अपनी आत्मा को सर्वोपरी माना। वे सभी क्रियाएँ की जो उन्हें शरीर से भिन्न एक आत्मा बनाती थी। वे कहते थे, “जीवन खाने के लिए नहीं मिला है, जीवन को जीना है इसलिए खाना है।”


उनकी कही बातें कहने भर के लिए नहीं थी। उन्होंने वही कहा जो जिया, इसलिए ही तो सन् 1967 में उन्होंने अपने गुरुदेव ज्ञानसागर जी के मात्र इतना कहने पर कि, “तुम तो विद्याधर हो विद्या लेकर उड़ जाओगे।” यह सुनकर ही तुरंत उन्होंने आजीवन वाहन का त्याग कर दिया। सच में उनके जीवन से सीख सकते हैं कि जीने के लिए खाना और खाने के लिए जीने में क्या फर्क है? नमक, तेल, हरी सब्जियाँ, फलों का रस, दूध, दही, मेवा, शक्कर आदि न जाने कितने खाद्य पदार्थों का उन्होंने वर्षों से त्याग किया हुआ था। 


वे आत्म कल्याण के पथ पर अग्रसर थे इसके मायने ये नहीं थे कि उन्हें अपने अतिरिक्त दीन-दुनिया से कोई लेना-देना ही नहीं था। भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र अहिंसा और करुणा केवल उनके वचनों में नहीं थे अपितु उसको जीव दया के संरक्षण का हिस्सा बनाकर उन्होंने न जाने कितने जीवों को संरक्षण प्रदान करने में अपनी मुख्य भूमिका निभाई। इस कड़ी में उन्होंने मूक पशु और पक्षियों के प्राणों की रक्षा के लिए न जाने कितने रक्षा केंद्र बनवाए। 


करुणा की बात करे तो भारत के आम आदमी को चरखे की क्रांति से जोड़ने से बड़ी करुणा और क्या हो सकती है? खुद अपना उद्योग स्थापित करने से बड़ा बहुमान एक निर्धन इंसान के लिए क्या हो सकता है? आत्म कल्याण के पथ के अनुगामी विद्यासागर जी महाराज ने कभी समाज कल्याण को गौण नहीं होने दिया। न जाने कितने शिक्षण संस्थान, कितने चिकित्सालय जो इनकी प्रेरणा से बने चीख-चीखकर उनके योगदान की पताका सदियों तक विश्व में फैलाते रहेंगे। 


 *विचारणीय यह भी है कि यह सब उन्होंने दिगम्बर जैन संत के गरिमामय पद के साथ किया जो अपनेआप में कई मर्यादाएँ स्थापित कर देता है। मृत्यु महोत्सव तभी बनती है जब पूरे होशोहवास में उसे आते हुए महसूस किया जाए। इन दिगम्बर संत ने यही तो किया है। जिए ऐसे कि आज अभी मौत आ जायेगी और दुनिया से ऐसे विदा हुए जैसे वर्षों से जाने के लिए तैयार ही बैठे थे।* 


समाधि के मायने इतने ही तो है कि आती हुई मृत्यु को आप होशोहवास में गले लगा सको। स्वयं के जन्म को महसूस करना हमारे वश में नहीं है मगर हमारी मृत्यु को हम यदि महसूस कर पाए तो देह परिवर्तन का उससे बड़ा महोत्सव क्या हो सकता है। 


संत किसी सम्प्रदाय या व्यक्ति विशेष के नहीं होते। वे समाज के होते हैं। समाज उनको जीवन जीने की प्राथमिक सुविधाएँ प्रदान करके उनके आत्म कल्याण में सहायक होती है तो बदले में जीवन जीने के सही मायने सिखाकर समाज कल्याण में अपना अमूल्य योगदान देते हैं। 


ऐसे तो आचार्य गुरुवर विद्यासागरजी महाराज के योगदानों को गिनाना सूरज को दीपक दिखाने के समान होगा मगर अपने द्वारा लिखित पुस्तक मूक माटी के कारण वे कई मानव जाति तक चिर स्मरणीय रहेंगे। यदि आपने यह पुस्तक नहीं पढ़ी है तो इस अवश्य पढ़े और जाने कि न बोलने वाली मासूम मिट्टी का हमारे जीवन में क्या योगदान है और उसका अनुकरण करके ही हम कैसे कंकर से शंकर बन सकते।

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