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जब अर्जुन बना मार्गदर्शक: महाकुंभ में इंसानियत की मिसाल

 


प्रवेश मिश्र

कार्यकारी संपादक, राइज प्लस


महाकुंभ 2025 प्रयागराज की पावन धरती पर संपन्न हुआ जहाँ करोड़ों श्रद्धालु गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम में आस्था की डुबकी लगाने पहुंचे। यह महा आयोजन केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक एकता, भक्ति और सेवा भावना का जीवंत प्रतीक बन गया। लाखों संतों के पदचाप, अनगिनत अखाड़ों की शोभायात्राएँ और गूंजते भजन-कीर्तन के बीच महासंगम में ऐसे कई अनजान नायक थे जिन्होंने निःस्वार्थ भाव से लोगों की सहायता की  और उन्हीं में से एक नाम है अर्जुन मिश्रा।


जब मैं अपने परिवार और भाई जैसे मित्र विश्वदीपक सिंह के साथ महाकुंभ में सम्मिलित हुआ और संगम में पवित्र स्नान किया तब जनसैलाब की विशालता देखकर हैरान रह गया। भीड़ के बीच दिशा ढूँढना, सही घाट तक पहुँचना और अपनों से न बिछड़ना किसी चुनौती से कम नहीं था। ऐसे ही वक्त पर मेरी मुलाकात हुई अर्जुन मिश्रा से। एक साधारण मगर असाधारण इंसान जो प्रयागराज के स्थानीय निवासी हैं, पर रोज़गार के सिलसिले में शहर से बाहर रहते हैं।


महाकुंभ के दौरान अर्जुन ने अपने व्यक्तिगत दायित्वों को पीछे छोड़ शहर लौटने का फैसला किया। उनका उद्देश्य एक ही था, अपने मित्रों और श्रद्धालुओं की सहायता करना। दिन हो या रात, सुबह 9 बजे से लेकर रात के 12 बजे तक, यहाँ तक कि भोर के 5 बजे भी, अर्जुन लगातार लोगों की मदद के लिए तत्पर रहते। किसी को घाट तक पहुँचाना हो, रास्ता दिखाना हो या बस किसी थके-हारे यात्री के लिए सहानुभूति से दो शब्द कहना, अर्जुन ने हर संभव तरीके से सेवा की।


अर्जुन का समर्पण केवल शारीरिक सहायता तक सीमित नहीं था। उन्होंने महाकुंभ में आए हर व्यक्ति को अपना समझा। कई बार उन्होंने बिना आराम किए, भूख-प्यास की परवाह किए बिना, दूर-दूर से आए तीर्थयात्रियों को उनके गंतव्य तक पहुँचाया। उनका मोबाइल नंबर हर परिचित और अनजान श्रद्धालु के पास था ताकि जरूरत पड़ने पर वे तुरंत सहायता के लिए तैयार रह सकें।


जब उनसे पूछा गया कि वे इतनी ऊर्जा और आत्मीयता के साथ यह सब क्यों कर रहे हैं, तो अर्जुन ने कहा, "यह मेरी भूमि है। यहाँ आने वाले हर श्रद्धालु हमारे घर के अतिथि हैं। माँ गंगा के दर्शन के लिए इतनी दूर से आने वालों को मदद करना मेरा सौभाग्य है।"


जब हम रात 1 बजे प्रयागराज पहुंचे, तो उन्होंने बिना किसी झिझक के मेरे भाई विश्वदीपक के आग्रह पर बाहरी सीमा तक आकर हमें रिसीव किया और अपनी गहरी समझ से हमारी कार को सीधे संगम घाट के नजदीक पहुँचाया। उनकी बेहतरीन रास्तों की जानकारी की वजह से मेरे माता-पिता को न्यूनतम पैदल चलना पड़ा, जिससे उनकी यात्रा सहज और आरामदायक बनी। उनकी इस निःस्वार्थ सेवा और समर्पण के लिए, मेरे पिता "राइज प्लस" के मुख्य संपादक संपत मिश्र ने उन्हें सम्मानस्वरूप असमिया फुलम गमछा भेंट कर, महाकुंभ के श्रद्धालुओं के प्रति उनके अविस्मरणीय योगदान की सराहना की।



अर्जुन मिश्रा जैसे लोग महाकुंभ की वास्तविक आत्मा हैं। उनकी निःस्वार्थ सेवा, मानवता के प्रति उनका प्रेम, और हर परिस्थिति में दूसरों की सहायता करने की उनकी इच्छा हमें सिखाती है कि सच्ची भक्ति केवल ईश्वर की आराधना में ही नहीं, बल्कि उनके अंश स्वरूप हर जीव की सेवा में है।


महाकुंभ भले ही समाप्त हो गया, पर अर्जुन जैसे नायकों की कहानियाँ हमें लंबे समय तक प्रेरित करती रहेंगी। उन्होंने यह साबित कर दिया कि प्रयागराज की मिट्टी में केवल आध्यात्मिकता ही नहीं, बल्कि सेवा और समर्पण की गहरी जड़ें हैं। उनकी कहानी उन सभी के लिए एक प्रेरणा है, जो अपने शहर, समाज, और देश के प्रति कुछ करने का जज़्बा रखते हैं।


अर्जुन मिश्रा जैसे अनसंग हीरो को नमन, जिन्होंने महाकुंभ को एक यादगार और सहज अनुभव बनाने में अनूठा योगदान दिया।

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