भारतीय सीमाओं पर हालिया घटनाक्रम केवल एक युद्ध का प्रतीक नहीं, बल्कि उस संघर्ष की पराकाष्ठा है जिसमें भारत अपनी आत्मरक्षा, सम्मान और राष्ट्रीय चेतना के लिए खड़ा हुआ। पहलगाम आतंकी हमले के बाद सम्पूर्ण राष्ट्र में उबाल था। यह हमला मात्र एक आतंकी कार्रवाई नहीं, बल्कि पाकिस्तान की गहरी साजिश और उसके सरकारी संरक्षण में पल रहे आतंक के नेटवर्क का जघन्य प्रदर्शन था। जवाब भी उसी स्तर का होना था, और भारतीय सेना, वायुसेना और नौसेना ने उसे क्रियान्वित कर दिखाया। तीनों सेनाओं ने LOC पार जाकर आतंक के अड्डों को नष्ट किया, गुरेज़ और टंगधार जैसे क्षेत्रों में दुश्मन की कई अग्रिम चौकियाँ ध्वस्त की गईं, राफेल विमानों ने मुज़फ्फराबाद और कोटली में आतंकी शिविरों को पूरी तरह मिटा दिया, और INS चक्र जैसी परमाणु पनडुब्बियों ने कराची पोर्ट के आसपास अघोषित घेराबंदी से पाकिस्तान की सप्लाई लाइन को जकड़ लिया।
ऐसे निर्णायक क्षण पर जब राष्ट्र ने निर्णायक विजय की प्रतीक्षा की, भारत सरकार ने अचानक युद्धविराम की घोषणा कर दी। प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से जारी बयान में कहा गया, “भारत ने शांति का विकल्प चुना है, लेकिन यह शांति हमारी मजबूरी नहीं, हमारी शक्ति की पहचान है।” इस वक्तव्य के साथ-साथ देश में एक तीव्र बहस शुरू हो गई—क्या यह निर्णय राष्ट्र की भावना के अनुरूप है?
इस बीच एक और गंभीर मोड़ तब आया जब बीजिंग से देर रात खबर आई कि चीन ने पाकिस्तान को “रणनीतिक समर्थन” देने की औपचारिक घोषणा की है। यह समर्थन न केवल राजनयिक था, बल्कि सैन्य साझेदारी और आर्थिक आपात सहायता तक फैला हुआ है। चीन ने भारत को स्पष्ट संकेत दिया कि यदि संघर्ष बढ़ा, तो वह "क्षेत्रीय स्थायित्व की रक्षा" के नाम पर हस्तक्षेप कर सकता है। भारत के लिए यह एक दोतरफा मोर्चा बनने की चेतावनी थी—पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान, और उत्तरी सीमा पर ड्रैगन की चालबाज़ियाँ।
इसी खतरे की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल, और तीनों सेना प्रमुखों—जनरल अनिल चौहान (थलसेना), एयर चीफ मार्शल वी.आर. चौधरी (वायुसेना) और एडमिरल आर. हरि कुमार (नौसेना)—के साथ आपात बैठकें कीं। इन बैठकों में दो विषयों पर विशेष विमर्श हुआ—1) क्या भारत को दोहरा मोर्चा संभालने के लिए तत्पर रहना चाहिए? 2) क्या वर्तमान सैन्य कार्रवाई के बाद एक रणनीतिक ठहराव भारत की वैश्विक छवि को मजबूत करेगा?
रक्षा मंत्रालय से जुड़े सूत्रों के अनुसार, सेना ने प्रधानमंत्री को जानकारी दी कि वर्तमान स्थिति में भारत सामरिक रूप से पूरी तरह तैयार है, लेकिन लंबी लड़ाई की स्थिति में अंतरराष्ट्रीय दबाव, आपूर्ति लाइनों और आंतरिक सुरक्षा की स्थिति को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। इसीलिए यह युद्धविराम एक “रणनीतिक ठहराव” के रूप में देखा जा रहा है, न कि हार या दबाव के परिणामस्वरूप लिया गया निर्णय।
शहीद परिवारों का दर्द अब भी अधूरा बदला मांगता है। अपनी मातृभूमि की रक्षा करते समय वीरगति को प्राप्त हो चुके हमारे जाबाज़ सिपाहियों के पिता हों या पत्नी या उसकी संतान—हर आवाज़ यही कह रही है कि "अगर सेना जीत रही थी, तो क्यों रोका गया?" सोशल मीडिया पर राष्ट्रवादियों का रोष और नागरिकों की भावना साफ़ है—"भारत शांति चाहता है, लेकिन आत्मसम्मान से कमतर कोई समझौता स्वीकार नहीं।"
राजनीतिक प्रतिक्रिया भी विभाजित है। विपक्ष इसे 'रणनीतिक चूक' कहता है, तो सत्ता पक्ष इसे 'राजनयिक सफलता'। लेकिन जनभावना इस समय केवल एक बात पर केंद्रित है—"अगर हमने दुश्मन को झुकाया, तो झुकने की ज़रूरत क्या थी?"
यह स्पष्ट है कि भारत अब “पुराना भारत” नहीं है। वह चाहे युद्ध लड़े या युद्धविराम चुने, उसकी नीति अब स्पष्ट है—आत्मसम्मान सर्वोपरि है। यह शांति यदि ताकत से निकली है, तो स्वागत योग्य है; लेकिन यदि यह किसी कूटनीतिक दबाव या विदेशी गठबंधनों के कारण आई है, तो यह राष्ट्र के लिए चेतावनी की घंटी है।
अब यह भारत पर निर्भर करता है कि वह इस युद्धविराम को "रणनीतिक संतुलन" बनाए रखे, या उसे फिर से निर्णायक कार्रवाई में बदले। एक बात निश्चित है—भारत अब सिर्फ जवाब नहीं देता, पहल करता है। और अगली बार, यह ठहराव नहीं, केवल आघात होगा।
(उक्त लेख के विचार लेखक के है। अतः किसी जिज्ञासा के लिए लेखक से संपर्क करे)
राजेश राठी
उत्तर लखीमपुर, असम
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