पूजा शर्मा
महर्षि दधीचि एक महान तपस्वी और वेदों के ज्ञाता थे। भारतीय संस्कृति में उनका नाम सर्वोच्च त्याग, दान और लोककल्याण के प्रतीक के रूप में लिया जाता है।
उनका जन्म भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को हुआ था। महर्षि दधीचि, अथर्व ऋषि के पुत्र और माता चित्ति के पुत्र थे। उनकी पत्नी का नाम सुवृता (या सुवर्चा) था। वे वेदों, शास्त्रों और ब्रह्मविद्या के महान ज्ञाता, शिवभक्त और कठोर तपस्वी थे।
कथाओं में वर्णित है कि शिव की आज्ञा से उन्होंने अपने शरीर पर नमक लगाकर कामधेनु गौ माता से उसे चटवाया और ब्रह्मविद्या के बल से अपने प्राण त्याग दिए।
अस्थिदान और वृत्रासुर का वध :
पुराणों में वर्णन है कि जब असुर वृत्रासुर ने इन्द्रलोक पर अधिकार कर लिया और देवता पराजित हो गए, तब ब्रह्माजी ने बताया कि केवल महर्षि दधीचि की अस्थियों से बने अस्त्र द्वारा ही वृत्रासुर का वध संभव है।
देवताओं ने अपनी व्यथा महर्षि दधीचि के सामने रखी। उन्होंने बिना किसी हिचकिचाहट के अपने प्राण त्यागकर अपनी अस्थियाँ दान कर दीं। उन्हीं अस्थियों से वज्र बनाया गया, जिसे इन्द्र ने धारण किया और वृत्रासुर का वध कर दिया।
इन्द्र और महर्षि दधीचि :
देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि के पास जाने में संकोच कर रहे थे। इसका कारण यह था कि पहले उन्होंने दधीचि का अपमान किया था।
कथा के अनुसार, ब्रह्मविद्या का ज्ञान पूरे विश्व में केवल महर्षि दधीचि को ही था। इन्द्र इस विद्या को पाना चाहते थे, लेकिन दधीचि ने उन्हें इसके योग्य नहीं माना। जब दधीचि ने इन्द्र को यह विद्या देने से मना किया, तो क्रोधित इन्द्र ने उन्हें चेतावनी दी कि यदि उन्होंने किसी अन्य को यह विद्या दी तो वे उनका सिर धड़ से अलग कर देंगे।
बाद में जब अश्विनीकुमार ब्रह्मविद्या प्राप्त करने पहुँचे, तो दधीचि ने उन्हें योग्य समझा। इन्द्र की आज्ञा से बचाने के लिए अश्विनीकुमारों ने दधीचि को घोड़े का सिर प्रदान किया और उनसे विद्या ग्रहण की। इसके बाद इन्द्र ने आकर उनका असली सिर काट दिया। किंतु अश्विनीकुमारों ने पुनः उनका असली सिर जोड़ दिया। यही कारण था कि बाद में इन्द्र, दधीचि से अस्थिदान माँगने में संकोच कर रहे थे।
मिश्रित तीर्थ (उत्तर प्रदेश) :
दधीचि ऋषि ने उत्तर प्रदेश के नैमिषारण्य के निकट मिश्रित नामक स्थान पर अपना अस्थिदान किया। वहाँ स्थित कुंड में सभी देवताओं ने पवित्र नदियों का जल मिलाया। दधीचि ने उस कुंड में स्नान कर अपनी अस्थियाँ दान कीं। आज भी मिश्रित गाँव में वह कुंड विद्यमान है, जहाँ महर्षि दधीचि के पिता, पत्नी और पुत्र की प्रतिमाएँ स्थापित हैं। यह स्थल दधीचि के वंशजों के लिए पवित्र तीर्थ माना जाता है।
सुवर्चा और पिप्पलाद :
जब दधीचि ने अस्थिदान दिया, उस समय उनकी पत्नी सुवर्चा गर्भवती थीं। दधीचि के स्वर्ग गमन के बाद उन्होंने सती होने का निश्चय किया। देवताओं ने उनसे अनुरोध किया कि गर्भ को सुरक्षित रखा जाए ताकि दधीचि का वंश जीवित रह सके।
गर्भ को पीपल वृक्ष को सौंप दिया गया। वहीं बालक का पालन-पोषण हुआ। पीपल के नीचे लालन-पालन होने के कारण बालक का नाम पिप्पलाद रखा गया। आगे चलकर पिप्पलाद ऋषि के नाम पर अथर्ववेद की पैप्पलाद शाखा प्रचलित हुई।
दधिमती माता :
महर्षि दधीचि की बहन दधिमती ने पिप्पलाद के पालन-पोषण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
राजस्थान के नागौर में आज भी दधिमती माता का प्राचीन मंदिर स्थित है, जहाँ भक्त उनकी पूजा करते हैं।
दाधीचि समाज :
महर्षि दधीचि के वंशज दाधीचि ब्राह्मण कहलाते हैं। यह समाज राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, हरियाणा और देश के अन्य अनेक भागों में पाया जाता है।
गोत्र और शाखाएँ :
• दधीचि ऋषि के पुत्र पिप्पलाद से 12 गोत्र प्रवर्तक ऋषि उत्पन्न हुए।
• इन 12 से 144 शाखाएँ (नख) बनीं।
• वर्तमान में समाज में लगभग 88 शाखाएँ विद्यमान हैं।
• कुछ लोककथाओं में दहिया राजपूत भी स्वयं को महर्षि दधीचि का वंशज मानते हैं।
महर्षि दधीचि ने अपने अस्थिदान द्वारा यह संदेश दिया कि जीवन तभी सार्थक है जब वह दूसरों के कल्याण में समर्पित हो।
उनका अस्थिदान न केवल देवताओं को विजय दिलाने वाला था, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए आदर्श भी बन गया।
आज भी जब भी त्याग और लोककल्याण की बात आती है, महर्षि दधीचि का नाम श्रद्धा और आदर के साथ लिया जाता है। वे वास्तव में दुनिया के इतिहास में अद्वितीय त्यागमूर्ति माने जाते हैं ।
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