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महिला सशक्तिकरणः नये भारत की मजबूत नींव


                                 डाॅ. नाज़ परवीन
                         
महिला सशक्तिकरण की अवधारणा, वैश्विक पटल पर नारीवादी आन्दोलनों, अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं एवं यूएनडीपी के माध्यम से महिलाओं की समानता, स्वतंत्रता, न्याय के प्रति सजग व जुझारू व्यक्तित्व को मजबूती देती है। महिला सशक्तिकरण शब्द उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भिक समय से कई सांगठनिक आन्दोलन में मिलता है। इन आन्दोलनों की मूलधारा में महिला सशक्तिकरण के बीज हैं।
19वीं सदी के दौर में जब एक ओर फ्रांसिसी क्रांति का विस्तार हो रहा था तो दूसरी ओर नारी-जागरण का उदय न केवल फ्रांस अपितु इग्लैण्ड, जर्मनी से भारत की धरती पर विशेषकर बंगाल और महाराष्ट्र में नारी सुधार आन्दोलन विस्तार पा रहे थे। रूढ़िवाद और अंधविश्वास की शिकार नारी की सामाजिक-सांस्कृतिक उन्नति के प्रयास शुरू हुए। नारी की व्यक्तिगत व सार्वजनिक क्षेत्रों में स्थिति की पुनर्व्याख्या पर जोर दिया गया। भारत में इसका विस्तार राजा राममोहन राय द्वारा 1815 में स्थापित आत्मीय सभा में किया गया। इन्होंने सती प्रथा के विरूद्ध सार्थक लड़ाई लड़ी। 1850 में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने विधवा विवाह के समर्थन में अभियान चलाया। 19वीें सदी में महिलाओं को शिक्षित करने के लिए दयानन्द सरस्वती ने वैदिक परम्परा और सर सैयद अहमद खां द्वारा मुुस्लिम महिलाओं को घर पर ही शिक्षा देने का पक्ष लिया। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने स्त्रियों के लिए धर्मनिरपेक्ष शिक्षा की वकालत की। रमाबाई, सावित्री बाई फूले नारी सशक्तिकरण की वाहक बनीं। यदि हम 19वीं सदी को महिला जागरण की शताब्दी कहें तो सार्थक होगा। 20वीं सदी नारी अधिकारों की बहस लिंग आधारित भेदभाव से ऊपर उठकर नारी को पुरूषों के समान अधिकार देने का पक्षधर है।
21वीं सदी की महिला अपनी नई छवि के निर्माण का काम कर रही हैं। महिलाएं अब अपने हक-अधिकारों को पहचानने लगी हैं। आज की महिला कामकाजी है। विभिन्न उद्यमों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। महिला उद्यमिता से भी उनके सशक्तिकरण की पृष्ठभूमि तैयार हुई है।
1959 में एक भारतीय महिला ने सहकारी तौर पर प्रतिष्ठित ’लिज्जत पापड़’ का अपना छोटा-सा व्यवसाय शुरू किया जो आज एक वृहद उपक्रम बनकर लगभग 42 हजार से ज्यादा लोगों को रोजगार देने के साथ-साथ लगभग 800 करोड़ रूपए से भी अधिक का टर्नओवर रखता है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में मौजूद उद्यमियों में 49 प्रतिशत महिलायें हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि भारत सक्रिय महिला उद्यमियों की दृष्टि में हांगकांग और फ्रांस से भी आगे खड़ा है। यूएन इण्डिया बिजनेस फोरम की फैक्टशीट के अनुसार दिये गये आंकड़े लैंगिक परिदृश्य पर प्रकाश डालते हैं। सकल घरेलू उत्पाद में महिलाओं के योगदान के मामले वैश्विक औसत 37 प्रतिशत की तुलना में भारत में महिला योगदान केवल 17 प्रतिशत है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि यदि महिलाओं की अर्थव्यवस्था पर भूमिका पुरूषों के समान रहे तो 2025 तक भारत की वार्षिक जीडीपी में 2.9 ट्रिलियन डाॅलर की वृद्धि हो सकती है। कृषि कार्यों में लगी महिला किसानों की संख्या लगभग 38.87 प्रतिशत है लेकिन भारत में उनका कृषि भूमि पर नियंत्रण मात्र 9 प्रतिशत है।
महिला सशक्तिकरण को मजबूती देने के लिए भारत सरकार द्वारा पृथक विभाग की स्थापना ’महिला व बाल विकास मंत्रालय’ के तौर पर बहुत पहले की जा चुकी है। आधी आबादी को सुरक्षित एवं सशक्त बनाने के लिए भारत सरकार की ओर से कई योजनाएं बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, सबला योजना, वन स्टाॅप सेंटर, वर्किंग वुमन हाॅस्टल, नारी शक्ति पुरस्कार योजना, महिला ई हाट जैसी योजनाओं द्वारा महिलाओं को सशक्त बनाने की दिशा में हस्तक्षेप किए गए हैं। महिला सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए हमारे देश में कई कानूनों का प्रावधान है। कामकाजी महिलाओं को यौन शोषण से बचाव हेतु कार्यस्थल पर महिलाओें के उत्पीड़न संबंधी सुरक्षा अधिनियम पारित किया गया। भ्रूण लिंग परीक्षण अपराध घोषित किया गया। महिलाओं की राजनैतिक भागीदारी बढ़ाने के लिए नगरपालिकाओं और पंचायतों में 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान जैसे कई कानूनों के माध्यम से आधी आबादी के अधिकारों को संरक्षित किया गया है।
महिला सशक्तिकरण को मजबूत आधार देने का प्रयास स्वतंत्र भारत में निरन्तर हो रहा है। 1951 की जनगणना में पुरूष की साक्षरता दर 21.16 और महिला साक्षरता 8.86 थी और 2011 की जनगणना में यह बढ़कर पुरूष साक्षरता 82.14 एवं महिला साक्षरता 65.46 है जो कि पुरूषों की तुलना में आज भी 16.68 का अन्तर है। किसी भी देश की तरक्की वहां की आधी आबादी को सशक्त बनाये बगैर संभव नहीं। शिक्षा सामाजिक व आर्थिक स्वतंत्रता का द्वार खोलती है, जिससे सशक्तिकरण का मार्ग प्रशस्त होगा।
महिला सशक्तिकरण का अर्थ महिलाओं द्वारा परम्परागत बन्धनों से मुक्त होकर अपने और समाज के विषय में सोचने की क्षमता का विकास है। महिला समाज की हर समस्या को पुरूषों के मुकाबले बेहतर ढंग से हल करने में सक्षम है। 21वीं सदी की महिला सुपर वुमन है। बस महिलाओं के लिए थोड़ा सकारात्मक वातावरण बनाने की आवश्यकता है। आज के डिजिटल युग में शहरों के साथ-साथ ग्रामीण महिलाओं को भी जागरूक, शिक्षित और सक्रिय बनाकर उन्हें अपने पैरों पर खड़े करने की जरूरत है। तभी महिला सशक्तिकरण की अवधारणा मूर्त रूप में सफल होगी।
(लेखिका एडवोकेट हैं।)

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