प्रदीप भुवालका
गुवाहाटी
पितातुल्य परम आदरणीय अग्रज स्व. दीनदयाल जी सिंघानिया का जीवन "सादा जीवन-उच्च विचार" को चरितार्थ करते हुये, उन्हें जानने वालो के लिये सदैव प्रेरणादायी रहा। गीता मर्म को आत्मसात किये वे सदैव कर्म प्रधान रहते हुये कर्तव्य परायणयता के साथ धर्म ध्वजा थामे संस्कृति समन्वयकर्ता के साथ साथ उदारमना एवं दानवीर व्यक्तित्व थे।
जमाने के चलन अनुसार परिवारों मे विखण्डन चरम पर था, ऐसे मे संगठित परिवार को संचित करते हुये उन्होने पूरे परिवार को अपनत्व के बंधन में बांध रखा था, जैसे एक धागे में मोतीयों की लङ के समान पिरोया हुआ हो। आदरणीय भाई साहब की कर्मठता ने उनकी ख्याति का परचम पुरे पूर्वोत्तर में फहराया। क्षैत्र चाहे समाज का हो, व्यवसाय का हो या फिर सेवा का, हर क्षैत्र में उनका सुयश उनसे एक कदम आगे चलता था। वृहत्तर समाज उन्है प्यार से दीना बाबू के नाम से पुकारते थे। माता-पिता के आशीर्वाद से प्राप्त अपने नाम 'दीनदयाल' को चरितार्थ करते हुये वे सदैव दीनों के दयाल बनकर अपने जीवन को साधा।
आदरणीय भाईजी का जन्म 2 जनवरी, 1944 में हुआ, बाल्यकाल बीकानेर मेें बीता तथा दाम्पत्य जीवन का शुभारंभ हुआ 17 मई, 1967 को। धर्मपत्नी श्रीमती ललिता देवी (डिब्रूगढ़) के साथ गृहस्थ धर्म का पालन करते हुये संतति धन में सबसे बङी पुत्री एवं तीन पुत्र तथा दामाद, बहुऔ, नाती-पोती से भरापुरा परिवार हैं। आपके पारिवारिक संस्कार एक आदर्श परिवार का परिचायक है तथा तीनों पुत्रों को इस कलयुग में श्रवण कुमार की संज्ञा से अलंकृत करूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। पिता के नक्शे कदम पर चलते हुये भाईजी के पुत्रों ने इतनी कम उम्र में औद्योगिक क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बना कर पिता को गौरवान्वित किया है। भाईजी ने आदर्श पिता की भूमिका निभाते हुये कभी भी बहुऔं और बेटियों मे फर्क नहीं रखा। बहुऔं को सदैव बेटियों का दर्जा देकर अन्य के लिये उदाहरण प्रस्तुत किया। भाईजी की बेटे और बहुएऔं ने जो सेवा की, वह अपने आप में अद्वितीय उदाहरण है। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि ऐसे बेटे और बहुएं रूपी संतति सभी को दें।
20 वर्ष की किशोर अवस्था में मेरा गुवाहाटी आगमन हुआ और आज 58 वर्ष की पादान पर खङे पीछे मुड़कर देखता हूं, तो जीवन के 38 वर्ष जो भाईजी की छत्र छाया में गुजरे वो मेरे लिये अमुल्य निधि है, उन्का स्नेहमयी वरदहस्त मुझ पर सदैव बना रहा, जिसने मुझे कभी भी माता-पिता से दूर होने का एहसास नहीं होने दिया। उन्होंनें सदैव मुझे अपने चोथे पुत्र के रूप में अपने दिल में जगह दी। उनके देहावसान से प्यार, स्नैह व वात्सल्य की छाया को हमनें खोया जो रह रह कर ह्रदय को झंझकोरती है। में अंतर्मन से बाबा वैद्यनाथ से प्रार्थना करता हुॅ भाईजी की आत्मा को परम शांति प्रदान करे एवं अपने श्री चरणों मे, बैकुंठ धाम में वास दें। परिजनों को इस कठिन समय को सहन करने की शक्ति प्रदान करे। भाईजी के दिखाये मार्ग पर चलना ही उन्हें हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। ऊॅ शांति शांति शांति।
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