अजय तिवारी
बिहू असम की संस्कृति और उसकी अस्मिता से जुड़ा हुआ मुख्य पर्व है, असम की जनता के जीवन का सार है, जिसे पूरे राज्य में जबरदस्त जोश और उत्साह के साथ मनाने की परंपरा है । वर्ष में तीन बार बिहू' पर्व मनाने की परंपरा है।' रोंगाली बिहू जिसे बोहाग'बिहू भी कहा जाता है रोंगाली का आसामी में अर्थ होता है हर्ष (खुशी) आनंदोल्लास , चहलपहल , धूमधाम (बैसाख, अप्रैल के मध्य) के महीने में मनाया जाता है। यह पर्व शान्ति, सौहार्द, एकता और जनकल्याण की भावना को प्रबल करता है। बिहू पर्व सिर्फ बिहू नृत्य और बिहू गीत तक हीं सीमित नहीं होकर बल्कि यह असमिया गौरव और असमिया संस्कृति, असमिया लोगों की पहचान का सबसे बड़ा मानक है। बिहू के साथ असम की जनता का स्वाभिमान भी जुड़ा हुआ है।माघ बिहू' जो 'माघ' (जनवरी के मध्य) के महीने में मनाया जाता है, और 'काटी बिहू' जो 'काटी' (कार्तिक, अक्टूबर के मध्य) के महीने में मनाया जाता है। प्रत्येक बिहू त्यौहार का अपना महत्व है और इसे अपनी परंपराओं के साथ मनाया जाता है।बोहाग बिहू, जिसे रोंगाली बिहू भी कहा जाता है, एक उमँग और सौहार्द का त्यौहार है जिसे असमिया नव वर्ष के रूप में भी मनाया जाता है। इस अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम के तौर पर बिहू नृत्य मुख्य आकर्षण का केंद्र होता है। असम की सरकार ने देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सम्मान में बिहू नृत्य का भव्य आयोजन किया था जो कि विश्व रिकॉर्ड बन चुका है।
बिहू पर्व का प्रकृति और मानवीय भावना से सीधे तौर पर जुड़ाव है, यह यहीं तक सीमित नहीं है बल्कि प्रेम की भावना से भरा हुआ है जिसमें लड़के और लड़कियों की टोली अपने नृत्य कौशल का प्रदर्शन करती हैं, तथा पूरे लय में अपने प्रेम की भावनाओं को एक दूसरे के साथ लड़कियां व्यक्त करती हैं।
“तोई आ मूर धूलिया, मोई आ तूर नासोनी” यह प्रेम की अभिव्यक्ति है जब नृत्य करती हुई लड़की ड्रम वादक से आंख में आंख डालकर यह कहती है कि तुम्हीं केवल मेरे ड्रमर हो और मैं हीं केवल तुम्हारी नृत्यांगना हूँ।
प्रेम और प्यार असमिया साहित्य का एक प्रमुख तत्व अन्य साहित्यों की तरह ही रहा है जो कि बिहू गीत के रूप में निखरकर आता है, जिसे इस बिहू गीत में देखा जा सकता है “अरु मोई तुमलोई हखोदाई राती सीथी लिखी, पुआ फली पेलाव भालकोई लिखीमे बुली, दियाई न हॉल जाना तुमाके ओई, कुवाई नोहोल मोनोर को थाबूर ओय, यह बिहू गीत स्कूल के दिनों की याद दिलाता है जब कोई छात्र अपने प्यार को, अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पाता था, प्रेम पत्र एक दूसरे को नहीं दे पाता था, इस तरह की परिस्थितियों से अधिसंख्य लोगों को अपने स्कूली जीवन में गुजरना पड़ा है जिसका सीधा प्रभाव प्रायः हर व्यक्ति के जीवन में रहा है।
रोंगाली बिहू में लोग खेती की शुरुआत करते हैं, अच्छे फसल की पैदावार हो इसकी कामना करते हैं, बोहाग बिहू के पहले दिन को गोरू बिहू कहा जाता है। बैलों और गायों को हल्दी से नहलाया जाता है, लौकी और बैंगन खिलाए जाते हैं और उन्हें नई रस्सियाँ प्रदान की जाती हैं। रोंगाली बिहू त्यौहार (असमिया नव वर्ष का पहला दिन) के दूसरे दिन को मनुह बिहू कहा जाता है। पुरुष, महिलाएँ और बच्चे नए कपड़े पहनते हैं और दूसरे के घरों में जाकर बिहू के अवसर पर उपहार (गिफ्ट) देते हैं। उपहार के रूप में हस्त निर्मित गामोछा और स्कार्फ जैसे कपड़े देने की परंपरा है।
सारांश के तौर पर यह कहा जा सकता है कि असम की संस्कृति बहुत हीं समृद्ध है और इस संस्कृति के पल्लवित और पुष्पित करने में रूप कुंवर ज्योति प्रसाद अग्रवाला और असम के महान साहित्यकार, कवि साहित्यिक साधक लक्ष्मी नाथ बेजबरुआ की महती भूमिका रही है जिन्होंने देश की विभिन्न संस्कृतियों के साथ समन्वय स्थापित करने का कार्य किया है।
“ओ मोर अपनूर देख” ओ मोर सिकुनी देख” जैसा कालजयी गीत लिखकर अमर हो जाने वाले लक्ष्मी नाथ नाथ बेज बरुआ ने असम की संस्कृति को शिखर पर ले जाने का अनोखा कार्य किया है।
अनेक ऐसे दृष्टांत हैं चाहे वह लाचित बर्फुकन का शौर्य हो, या फिर डॉ भूपेन हजारिका का गायन,सभी ने अपनी प्रतिभा से असम की संस्कृति को सींचा एवं समृद्ध किया है।
असम के मुख्य पर्व बिहू के समय अन्य प्रान्तों में मनाए जाने वाले पर्वों के साथ तारतम्य दिखता है।
जनवरी महीने में असम में भोगाली बिहू मनाया जाता है जो कि खान पान के साथ होता है जबकि बिहार और उत्तर प्रदेश में मकर संक्रांति के रूप में मनाया जाता है जब तिल से बने मिष्ठान और चूड़ा दही का सेवन किया जाता है। मकर संक्रांति के दिन सूर्य दक्षिणायन से उतरायण होते हैं जो कि काफी शुभ माना जाता है जिसका फल एवं प्रभाव विभिन्न जातकों की राशियों पर पड़ता है।
इसी समय पोंगल का पर्व दक्षिण के राज्य तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और केंद्रशासित राज्य पुडुचेरी में हर्षोलाष के साथ मनाया जाता है, यह खेती के पर्व के रूप में चार दिनों तक मनाया जाता है।
लोहड़ी का पर्व जनवरी माह में पंजाब एवं उत्तर भारत के अन्य राज्यों हरियाणा, जम्मू और हिमाचल प्रदेश में हिन्दू और सिख सभी मिलजुलकर मनाते हैं और सिख समाज पूरे विश्व में जनवरी महीने में लोहड़ी पर्व मनाता है जो कि खेती का हीं पर्व है । पंजाब में अप्रैल माह में वैशाखी पर्व मनाया जाता है और बिहार में सतुआनी मनाया जाता है। यह सारे पर्व देश की विभिन्न संस्कृतियों के वाहक और प्रांतीय अस्मिता के प्रतीक हैं।
इतिहास गवाह है कि जिस समाज ने अपनी संस्कृति को उपेक्षित रखा या विस्मृत कर दिया उन्हें अनेक संघर्षों का सामना करना पड़ा है और अपनी पहचान के लिए जद्दोजहद करनी पड़ी है।
देश के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने असम की संस्कृति को वैश्विक स्तर पर पहुंचाने में एक महती भूमिका निभाई है, अब असम का “फूलोम गामोछा” देश का गौरव बन गया है, जिसकी पहचान वैश्विक स्तर पर होने लगी है। असम के मुख्यमंत्री डॉ हिमांता विश्व शरमा ने हस्त निर्मित आसामी “फूलोम गामोछा” के प्रोत्साहन एवं असम की संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए एक लाख हैंडलूम के द्वारा तैयार की गई फूलोम गामोछा को सरकारी स्तर पर खरीद करके ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी सुदृढ़ किया है।
आज असम के इस महत्वपूर्ण पर्व पर आधुनिकता और बाजारीकरण का प्रभाव बढ़ता जा रहा है जो कि किसी न किसी रूप में इसकी मौलिकता को प्रभावित कर रहा है।
आज जरूरत इस बात की है कि असम के इस महापर्व का जो संदेश और गौरव है ,उसे संजोकर रखना इसके मूल रूप में बने रहना, असमिया अस्मिता, गौरव एवं आपसी प्रेम तथा सौहार्द को बनाए रखना।
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