प्रवेश मिश्र
कार्यकारी संपादक, राइज प्लस
कार्यकारी संपादक, राइज प्लस
मां-बेटा का रिश्ता दुनिया में सबसे पवित्र रिश्ता होता है। इस रिश्ते की हर जगह दुहाई दी जाती है, लेकिन नगांव में एक ऐसा मामला सामने आया है जहां एक बेटे ने इसे कलंकित कर दिया। नगांव क्षेत्र में इंसानियत को शर्मसार करने वाला मामला सामने आया है। खबरों के अनुसार नगांव के प्रमोद अग्रवाल ने अपनी मां रत्ना देवी को नदी में फेंक दिया। धरती पर जिस रिश्ते को भगवान का दर्जा हासिल है, जिस मां की छांव तले पल कर हर कोई इस काबिल बनता है कि वो अपने पैरों पर चल सके, एक औलाद पर उसी के मां के कत्ल का इल्जाम है। प्रारंभिक जांच में प्रमोद ने यह कबूला है की वह अपनी मां के लकवाग्रस्त होने के बाद इलाज़ के लिए लग रहे पैसे के आभाव के चलते यह घृणित कृत किया है। पुरे मारवाड़ी समाज को प्रमोद अग्रवाल ने कलंकित कर दिया और सब शर्मसार जरुर होंगे। कुछ महीनों पहले गुजरात के राजकोट में भी एक बेटे ने अपनी मां को छत से फेंक दिया था। सीसीटीवी फुटेज सोशल मीडिया में वायरल हो गयी थी और पुरे भारत ने देखा की एक बेटा कैसे इस हरकत को अंजाम दे रहा था। पुलिस को उसने भी यही कहा था की लंबे समय से उसकी मां बीमार थी और वो उनके इलाज से तंग आ चुका था। मां की बीमारी बेटों से संभाली नहीं जा रही है पर जब बचपन में बीमार पड़े होगे बाबु तो यही मां दर-दर घूमी होगी। चलो बात बहुत पुरानी हो गई तो शायद भूल गए होगे।
माँ कहने को तो शब्द बहुत छोटा है पर इस शब्द की गहराई को कभी नापा नहीं जा सकता। किसी ने सही कहा है की घुटनों से रेंगते-रेंगते, कब पैरो पर खड़ा हुआ। तेरी ममता की छाव मे, जाने कब बड़ा हुआ। पुरे ब्रह्माण्ड में मां वह दौलत है जिसको कमाया नहीं जा सकता। जब बेटा पैदा होता है तो मां बड़ी खुश होकर समझती है कि यह बेटा आगे चलकर बुढ़ापे का सहारा बनेगा। शायद रत्ना देवी ने भी यही सोचा होगा। अफ़सोस, उन्होंने पूत नहीं कपूत को जन्मा था। एक स्थानीय अखबार ने इसी खबर के बारे में लिखा है की माता कुमाता नहीं होती पर पूत कपूत हो जाते है। में उस संबाददाता के विचारों से पूरा सहमत हूँ। रात 10 बजे जब सब अपने घरों में सो रहे थे तब प्रमोद अग्रवाल ने अपनी मां को कलंग नदी में फेंक दिया। आरोपी ने यह सोचा होगा की उसको कोई नहीं देख रहा है। पर गुनाह को कितनी भी परतों के नीचे क्यूँ ना दबा दिया जाए, वह एक ना एक दिन तो उजागर होता ही है।
तेज़ी से बदलती इस दुनिया में हम सबकी जरूरते भी तेज़ी से बदल रही है। व्यक्तिगत तौर पर बदलती जरूरतों के साथ साथ अन्य क्षेत्रों में भी बदलाव जरुरी है। मेरा इशारा सामाजिक क्षेत्र की ओर है। सामाजिक संस्थाएं अपने अपने क्षेत्र में सराहनीय काम कर रहीं है, पर किसी ना किसी को अपना ध्यान इस तरह की पनपती समस्यायों की ओर देना होगा। लगातार नैतिकता के पाठ को सिरे से खारिज करती इन घटनाओं का समाधान हमे ही निकालना है। नहीं तो कुछ समय बाद यह सब सामान्य लगने लगेगा और हम आदि हो जायेंगे यह सब देखने को। आम तौर पर एक ही तरह के प्रकल्पों के पीछे रेस में लगी संस्थाओं को अपना दायरा बढ़ाना होगा। वृद्धाश्रम एक समाधान हो सकता है। जिनको अपने माता-पिता अपने पर भारी पड़ रहें हो वह उनको वहाँ छोड़ कर आ सकते है। पूंजीपतियों की हमारे समाज में कमी नहीं है। मेरा मानना है की कुछ करने के लिए धनबल नहीं बल्कि इच्छाशक्ति चाहिए। समाज के लोगों को अपनी सोच में भी बदलाव लाना होगा। वर्तमान समय में सबसे बड़ी समस्या है “लोग क्या कहेंगे?”। कुछ करने से पहले लोग यह सोचते हैं कि हमारे किए हुए काम पर लोग क्या कहेंगे। कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। समाज तो वैसे भी बाप, बेटे और गधे वाली कहानी की तरह शायद किसी को जीने ना दे। पर उपलब्ध विकल्पों में से बेहतर विकल्प चुनने पर विचार होना चाहिए । अगर आपके आंखों का पानी खत्म हो चुका हो और मां-बाप को संभाल नहीं पा रहे हो, तो जान से मार देने के मुकाबले वृद्धाश्रम भेज देना एक बेहतर विकल्प है। वैसे सामाजिक तौर पर बदलाव के अलावा सरकार को भी अपनी नजर इसके समाधान की ओर रखनी चाहिए।
वसुधैव कुटुंबकम का नारा देने वाला भारत जो पूरे विश्व को एक परिवार मानता है, उस भारत में अपने ही परिवार के लोगों को मौत के घाट उतार देने वाली घटनाओं के ऊपर कुछ लिखना मैं अपना भी दुर्भाग्य मानता हूं।
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