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पितरों तक श्राद्ध पहुंचाने वाले अब विलुप्त हो रहे कौए


मौसम में आये परिवर्तन के कारण अब कौए के अस्तित्व पर भारी संकट पड़ा है। पितृ पक्ष में पितरों तक श्राद्ध पहुंचाने वाले कौए के गुम होने से यहां लोग चिंता में पड़ गये है। किसी जमाने में कौए हजारों की संख्या में पितृ पक्ष के आगमन पर इधर उधर कांव-कांव करते थे लेकिन अब इनकी आवाज कहीं भी सुनाई नहीं देती है। पितृ पक्ष के समाप्त के कुछ ही दिन बचे है। ऐसे में कौआ मामा के दर्शन न होने से नयी पीढ़ी के बच्चे हैरान है।

पर्यावरण प्रदूषण से प्रकृति में हो रहे परिवर्तन का परिणाम है कि गिद्ध, चील के बाद कौआ जैसा पक्षी भी गुम हो गया है। प्यास बुझाने के लिये यही कौए चोंच से कंकर डालकर घड़े का पानी ऊपर लाने की कवायद और लगन की सबसे बड़ी प्रेरणा दायक कथा कभी बच्चों को शायद समझ में न आये मगर बच्चों के मन में यहीं सवाल उठेगा कि कौए कैसे होते है। मेहमानों के आगमन की संदेश देने वाले और पितृपक्ष में पितरों तक श्राद्ध पहुंचाने वाले कौए अब विलुुप्त हो गये है। घर की मुंडेर पर कौए की शगुन भरी कांव-कांव की आवाज भी अब कहीं नहीं सुनायी देती है। 

पर्यावरण संरक्षण एवं प्रक्रति को संतुलित रखने में कौए की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वन विभाग के पास कम होते जा रहे कौवों के बचाव के लिये कोई उपाय नहीं हैं। वन विभाग भी कौवों की संख्या से अनिभिज्ञ है। चील, गिद्ध, गौरैया, सारस के साथ अब कौए भी विलुप्त होते जा रहे हैं। पर्यावरण में प्रदूषण का असर हर किसी पर पड़ा है। अब कौवे भी उनके अपवाद नहीं हैं। मेहमानों के आगमन की सूचना देने वाले कौए की कांव कांव और गौरैया की चेहक गुम से हो गयी है। शहरों एवं गांवों में ही इनका असर दिखाई दे रहा है।

घर की माताऐं एवं बहिनें शगुन मानकर कौवा मामा कहकर घर में बुलातीं तो कभी उसकी बदलती हुई दिशा में कांव कांव करने को अपशकुन मानते हुए उड़जा कहके बला टालतीं थीं तो कभी घर की बहुऐं कौए के जरिये मायके से बाबुल, भाई के आने की संदेशा पातीं थीं। एक दशक पहले कौए आकर पुरखों को दिये जाने वाला भोजन चुग जाते थे। ऐसी मानता है कि कौए ही पित्रों तक श्राद्ध पहुंचाते हैं। इस बारे में महेश त्रिपाठी का कहना है कि कौवा किसानों का मित्र है। वह शाकाहारी के साथ मासाहारी भी है। 

रासायनिक खाद, कीटनाशक दवाओं के प्रचलन, शहरीकरण, के साथ टेलीफोन टावर से निकलने वालीं तरंगें पक्षियों को लील रहीं हैं। यही कारण है कि कौए, गौरैया व अन्य पक्षियों की संख्या भी दिन व दिन घटती जा रही है। पेड़ कट रहे हैं जिससे इनके रहने के स्थान कम हो रहे है। गांव के बाहर तथा सड़क के किनारे पड़े मरे जानवर सड़ते रहते हैं जिनसे उठने वाली दुर्गंध दूर दूर तक जाती हैं और उनसे संक्रामक रोग फैलने का खतरा रहता है। इन मरे हुए पशुओं को खाने वाले गीद्ध, चील और कौए दूर तक नजर नहीं आते हैं। शहर व गांव की सफाई के लिये गिद्ध, चील और कौए ही गिने जाते थे। एक दशक पहले बच्चे कौवा मामा कहकर चहकते थे लेकिन आज यह आवाज सुनाई नहीं देती।

'झूठ बोले कौवा काटे काले कौए से डरियो' जैसे गाने गुनगुनाने वाले बच्चे कुछ वर्ष बाद कौवा मामा को देखने के लिये तरस जायेंगे। कौवा हकनी की कहानी तो लोग भूल ही गये। इधर पर्यावरण के लिये काम कर रहे जलीस खान ने बताया कि मौसम में आये परिवर्तन के कारण कौवे प्रजाति के अस्तित्व पर संकट पड़ा है। यह कौवे प्रकृति के लिये बड़े ही वरदान साबित थे मगर इनकी संख्या दिनोंदिन घटती जा रही है। 

वन विभाग के एसडीओ संजय शर्मा ने मंगलवार को बताया कि जनपद के ग्रामीण इलाकों के जंगलों में कौए दिखते है लेकिन शहर में ये कम दिखायी पड़े रहे है। उन्होंने बताया कि मौसम में आये परिवर्तन के कारण कौए भी हरे भरे जंगलों तक सिमट गये है। उन्होंने कहा कि ये आंकलन करना भी मुश्किल है इनकी संख्या कितनी होगी। (हि.स.)

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